Saturday, December 6, 2008

caravan guzar gaya

नीरज एक ज़माने में हमारे प्रिय कवि थे । हाईस्‍कूल के ज़माने वाले प्रिय
कवि ।
तब तक कविताओं के नाम पर हमारा परिचय ग़ज़लों और मंचीय कविताओं से ही हुआ था । और हम उन्‍हीं में मगन थे ।

तब कवि-सम्‍मेलनों में आज की तरह चुटकुलेबाज़ी नहीं हुआ करती थी । वो दिन अच्‍छी तरह से याद हैं जब 'नीरज' बहुधा कवि सम्‍मेलनों के अंत में खड़े होते और अपनी 'तरंग' में पढ़ते........'खुश्‍बू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की, लगता है खिड़की खुली है उनके मकान की' या फिर.....'अब तो कोई मज़हब भी ऐसा चलाया जाये, जिसमें आदमी को इंसान बनाया जाये' । और हम धन्‍य-धन्‍य हो जाते थे ।

फिल्‍मी-गीत उन दिनों की दोपहरों में हमारी जिंदगी का अहम हिस्‍सा थे । मुहल्‍ले की गलियों से गुज़रो तो हर घर में रेडियो, और रेडियो पर वही 'मनचाहे गीत' बज रहे होते । यानी पूरा रास्‍ता घरों से छनकर आ रही रेडियो की आवाज़ के सहारे काटा जा सकता था । उन्‍हीं दिनों झुमरीतलैया, टाटानगर, जुगसलाई, राजकोट, इटारसी, खंडवा के श्रोताओं की चिट्ठियों के ढेर सारे नाम खूब लंबी-लंबी सांस लेकर पढ़े जाते, तब रेडियो के उदघोषक सादा-सरल होते, सांस लेते तो पता चल जाता, चोरी से सांस नहीं ली जाती थी, चिट्ठी पढ़ी, गीतकार संगीतकार बताए और ये गाना.....। बृजभूषण साहनी, विजय चौधरी, कांता गुप्‍ता, लड्डूलाल मीणा या श्रद्धा भारद्वाज की आवाज़ होती और फिर ये गीत बजता । और गलियों में अपने 'भौंरे' चलाते हुए या फिर तार के सहारे बेयरिंग का पहिया चलाते हुए, छतों पर दोस्‍तों के साथ कॉमिक्‍स, राजन इकबाल, प्रेमचंद और जेम्‍स हेडली चेइज़ पढ़ते या फिर सायकिल पर आवारागर्दी करते हुए हम धूप में तपते 'काले-ढुस' हो जाते । ठीक उन्‍हीं दिनों ये गाने हमारे अवचेतन में कब और कैसे एक 'संक्रमण' की तरह घुस गए हमें पता नहीं चला ।

हम छोटे शहरों की उन्‍हीं दोपहरों के आवारागर्द, 'काले-ढुस', भयानक पढ़ाकू, चश्‍मू बच्‍चे हैं, जो बड़े शहरों में आकर, अभी भी प्रीतम और हिमेश रेशमिया को नहीं सुनते, पुराने ज़माने के रोशन, शंकर जयकिशन, ओ.पी.नैयर और नीरज, साहिर, शैलेंद्र, फै़ज़ में मगन हैं । ऐसे ही दिनों की विकल-याद में ये गीत आपकी नज़र । हम अकेले नहीं सुनेंगे बल्कि साथ में आपको 'डाउनलोड लिंक' देंगे ताकि ऐसा ना लगे कि खिड़की खोलकर थोड़ी-सी धूप दिखाई और फिर पर्दा लगा दिया ।

कविता-कोश में नीरज को यहां पढि़ये । कविता-कोश ने एक विजेट भी kavita kosh logo तैयार  किया है । ये रहा उसका कोड । आप कविता कोश का विजेट अपने ब्‍लॉग पर लगाकर इसका प्रसार कर सकते हैं । मुझे कविता-कोश एक सहज-संदर्भ-ग्रंथ जैसा लगता है । जब मशहूर कविताओं की जिन पंक्तियों का ध्‍यान आ जाये, फौरन कविता-कोश में जाकर उन्‍हें खोजा-पढ़ा जा सकता है । वरना पुस्‍तकों में खोजना कितना दुष्‍कर और असुविधाजनक हो सकता है ।  

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गीत की डाउनलोड कड़ी

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गयी
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गयी
चाह तो सकी निकल न पर उमर निकल गयी
गीत अश्क़ बन गए, छंद हो दफ़न गए

साथ के सभी दिए, धुआँ-धुआँ पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली
और हम लुटे-लुटे, वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गयी सहर
वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

माँग भर चली कि एक जब नयी-नयी किरण
ढोलकें ढुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण-चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पडा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भारी, गाज एक वह गिरी
पुंछ गया सिन्दूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे

Thursday, November 27, 2008

अजमेर यात्रा की तस्‍वीरें-दूसरा भाग । सूफी परंपरा का इतिहास और ख्‍वाजा ग़रीब नवाज़ की कहानी ।

जैसा कि पिछली पोस्‍ट में अर्ज़ किया था कि अचानक अप्रत्‍याशित रूप से हम अजमेर हो आए । चूंकि आग्रह है इसलिए इस बार तफ़सील से सूफ़ी मत और ख्‍वाजा मोईनुद्दीन चिश्‍ती के बारे में बताने की 'कोशिश' की जा रही है ।

 

दक्षिण-एशिया में सूफ़ी परंपरा की चार शाखाएं प्रचलित हैं । चिश्‍तिया सिलसिला- जिसकी शुरूआत पश्चिमी अफ़ग़ानिस्‍तान के  हेरात या अरिया शहर में हुई थी । इस सिलसिले के संस्‍थापक थे 'अबू इशाक समी' । इस सिलसिले के सबसे मशहूर संत हुए हैं ख्‍वाजा मोईनुद्दीन चिश्‍ती, जो तेरहवीं शताब्‍दी में हुए थे । इस सिलसिले के दूसरे महत्‍त्‍वपूर्ण संत हैं हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (दिल्‍ली), फ़रीदुद्दीन गंजशकर (पाकपट्टन, पाकिस्‍तान), कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (दिल्‍ली) वग़ैरह ।

 

क़ा‍दरिया सिलसिला- ये सूफी परंपरा का सबसे पुराना सिलसिला है, जिसकी बुनियाद अब्‍दुल क़ादिर जीलानी ने रखी थी । कहते हैं कि इस सिलसिले का इतिहास पैग़ंबर हज़रत मोहम्‍मद तक जाता है । दक्षिण पूर्वी एशिया के अलावा ये सिलसिला पूर्वी और पश्चिमी अफ्रीक़ा तक फैला है ।

 

नक्‍‍शबंदी सिलसिला-इस सिलसिले का आग़ाज़ हज़रत बहाउद्दीन नक्‍शबंद बुख़ारी से होता है । इस सिलसिले की भी कई शाखाएं हैं, जैसे मकसूदी, ताहिरी, उवैसिया वग़ैरह ।

 

सुहरावर्दी सिलसिला- इस सिलसिले की शुरूआत हज़रत दिया-अल-दीन-अबू-नज़ीब-अस-सुहरावर्दी से होती है ।

 

तो चिश्‍तिया सिलसिले के फ़कीर थे हज़रत मोईनुद्दीन चिश्‍ती । जिनका जन्‍म सन 1141 में सिस्‍तान में हुआ था । जब वो पंद्रह बरस के थे तो उनके माता-पिता का देहान्‍त हो गया था । परिवार का फलों का एक बग़ीचा और पवन-चक्‍की थी । इन्‍हें 'ग़रीब नवाज़' क्‍यों कहा जाता है इसके पीछे भी एक दंत-कथा है । कहते हैं कि बचपन में ईद-उल-फित्र (मीठी ईद) के दिन वो अपने पिता के साथ नमाज़ अदा करने गए थे । वहां उन्‍होंने एक बच्‍चे को रोते हुए देखा तो इसकी वजह पूछी, उसने बताया कि ईद के दिन सब बच्‍चों ने नये कपड़े पहन रखे हैं । पर उसके पास नए कपड़े नहीं हैं । इसलिए वो रो रहा है । इतना सुनकर मोईनुद्दीन ने अपने कपड़े उस बच्‍चे को दे दिये और खुद पुराने कपड़े पहन लिये । इसके बाद उन्‍हें 'ग़रीब नवाज़' कहा गया ।

 

एक दिन जब मोईनुद्दीन पौधों को पानी दे रहे थे, तो उन्‍होंने एक बूढ़े को देखा । ये बुज़ुर्गवार शेख इब्राहीम क़ुन्‍दोज़ी थे । उन्‍हें एक पेड़ की छांह में बैठाकर मोईनुद्दीन ने एक पेड़ से तोड़कर ताज़े अंगूर खाने को दिये । बदले में बुज़ुर्गवार ने भी उन्‍हें कुछ खाने को दिया । कहते हैं कि इसके बाद मोईनुद्दीन को इलहाम हुआ, उन्‍होंने दुनियावी चीज़ों को छोड़ दिया और फ़कीर बन गए । इसके बाद वो सफ़र पर निकल पड़े । और आखि़रकार हज़रत उस्‍मान हरवानी के शिष्‍य बन गए ।

 

कहते हैं कि एक दिन सपने में उन्‍हें पैग़ंबर हज़रत मोहम्‍मद ने दर्शन दिये और उसके बाद उनके हुक्‍म से वो निकल पड़े दक्षिण एशिया की तरफ़ । कुछ दिन लाहौर में रहने के बाद वो अजमेर आ गये और फिर यहीं बस गए ।

 

मुग़ल बादशाह अकबर (1556-1605) के ज़माने में अजमेर एक बेहद महत्‍त्‍वपूर्ण तीर्थस्‍थल के रूप में मशहूर हुआ । मशहूर फिल्‍म 'मुग़ले-आज़म' में आपने देखा होगा किस तरह अकबर रेगिस्‍तान में पैदल चलकर अजमेर पहुंचे थे और ख्‍वाजा की बारगाह में उन्‍होंने मुराद मांगी और वो पूरी भी हुई थी ।

 

तो ये थी संक्षिप्‍त पृष्‍ठभूमि ग़रीब नवाज़ के बारे में । और अब अजमेर-यात्रा की तस्‍वीरों का दूसरा भाग--दरअसल सारी तस्‍वीरें इसी भाग में निपटानी है इसलिए मुमकिन है कि धीमे कनेक्‍शन में लोड होने में देर लगे । सभी तस्‍वीरों पर क्लिक करके उन्‍हें बड़ा किया जा सकता है । फिर याद दिला दें: सभी तस्‍वीरें मोबाइल कैमेरे से खींची गई हैं ।

 

ये हैं भिश्‍ती- जो वुज़ू के हौज़ में पानी भरते हैं ।

 

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ये ताकीद भी होती है अब इबादतगाहों में ।

बोर्ड पर लिखा है ज़ायरीन अपने मोबाइल और दीगर सामान की हिफ़ाज़त ख़ुद करें ।

 

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बड़े बड़े करें इबादत । छोटे बच्‍चे खेलें खेल ।

 

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रंग-बिरंगी तस्‍बीहें ( जाप करने वाली मालाएं )

 

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बंगाली बाबू यहां पधारें ।

लिखा है: पीर सैयद मजीद मियां । असग़र मंजिल अजेमर ।

 

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छोटी देग़ बड़ी देग़ ( दान के पैसों से बनता है लंगर )

 

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दरग़ाह के बाहर का हाल--गुलाबी 'बुढि़या के बाल'

 

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मंदी में मद्धम हैं दाम: तीन पांच और आठ रूपए में कुल्‍फी

 

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इन्‍होंने बड़ों-बड़ों को 'टोपियां' पहनाई हैं भाय

 

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सीढि़यां खुद बताती हैं वो कहां जा रही हैं ।

 

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कॉम्बिनेशन देखिए--एक तरफ स्‍टोव दूसरी तरफ सिंधी ज़बान की सीडीज़

 

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हम यहीं रूकते हैं आप दर्शन करके आईये ।

 

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ये है मंटू । फोटू खिंचाने की अदा देखिए ।

क्‍या बाल मज़दूरी वाक़ई खत्‍म हो गई है ।

 

 

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सोणा सोणा सोहन हलवा  

 

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चल खुसरो घर आपने । रिक्‍शा है तैयार

 

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